Friday, October 24, 2025
Homeमनोरंजनफ़िल्म रिव्यू: 'भगवान' नहीं एक इंसान की लाइफ़ जर्नी है ये

फ़िल्म रिव्यू: ‘भगवान’ नहीं एक इंसान की लाइफ़ जर्नी है ये

सिर्फ नया होना ही नए होने की एकमात्र शर्त नहीं है। नया वह भी होता है, जो कभी पुराना नहीं पड़ता। सचिन रमेश तेंदुलकर के बारे में तो यह निस्संदेह कहा जा सकता है। जब से सचिन ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना शुरू किया, तब से लेकर अब तक उनके बारे में हम कितनी बातें कितनी बार सुन, पढ़ और देख चुके हैं, लेकिन मन नहीं भरता। उन्हें एक बार फिर से देखने, सुनने और पढ़ने की इच्छा खत्म नहीं होती। सचिन को लेकर भारतीयों की इसी दीवानगी का परिणाम है ‘सचिन: अ बिलियन ड्रीम्स’।

कहानी:

इस फ़िल्म का सिर्फ़ 20 फ़ीसदी हिस्सा ही नाटकीय है. बाकी का 80 फ़ीसदी हिस्सा बना है सचिन के पर्सनल होम वीडियोज़ से और उन क्रिकेट मैचों की असली क्लिप्स से जो एक के बाद एक आपको नॉस्टैलजिया में धकेलती जाती हैं.
सचिन का पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच, उनकी पहली सेंचुरी, डबल सेंचुरी, मैच फ़िक्सिंग, विश्व कप में हार, देश के लोगों की टीम इंडिया पर थू-थू और फिर हाथों में विश्वकप लिए हुए सचिन तेंदुलकर जिनको उनकी टीम ने कंधे पर उठाकर पूरे स्टेडियम में घुमाया था.
महज़ 16 साल की उम में इंटरनेशनल क्रिकेट में डेब्यू करने वाले सचिन के दीवानों में बॉलीवुड के सितारे भी शामिल हैं और प्रधानमंत्री भी. फ़िल्म में अमिताभ बच्चन, आमिर खान, नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा के क्लिप्स भी शामिल हैं जहां उन्होंने सचिन का ज़िक्र किया है.
फ़िल्म में 1990 में देश के बदलते हालात दिखाए गए हैं, जब ग्लोबलाइज़ेशन हो रहा था, प्रधानमंत्री की अचानक मौत हो गई थी, कश्मीर में समस्याएं शुरू हुई थीं. उस वक़्त देश को एक हीरो की तलाश थी जो इस बिखरते हुए इस देश को फिर से जोड़ सके.
सचिन तेंदुलकर ने एक राष्ट्रीय हीरो की वो खाली जगह भरी थी. क्रिकेट के लिए दीवानापन तो भारत में हमेशा से था लेकिन उसे मज़हब सचिन ने ही बनाया.
फ़िल्म में कुछ कंट्रोवर्सी की थोड़ी-थोड़ी हिंट भी दी गई है, जैसे सचिन के कप्तान बनाए जाने पर अज़हर और सचिन के बीच मनमुटाव बढ़े थे और ग्रेग चैपल और भारतीय टीम के आपसी संबंधों की वजह से टीम 2007 का वर्ल्ड कप हार गई थी. सचिन का पारिवारिक जीवन भी इस फ़िल्म में बहुत हद तक स्पष्ट किया गया है. टीम इंडिया जब भी कोई मैच हारती थी, सचिन बहुत अपसेट हो जाते थे. इतने अपसेट कि वो कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकलते थे. ऐसे वक़्त में उनकी पत्नी अंजलि ने उनका बहुत साथ दिया, उनको समझा और उनको सपोर्ट किया. सचिन अपने बच्चों को बहुत समय नहीं दे पाए. अंजलि कहती हैं कि सचिन के लिए पहले क्रिकेट था बाद में परिवार और परिवार ने ये बात एक्सेप्ट कर ली थी.
सचिन अपने पिता के बहुत करीब थे. जब 1999 वर्ल्ड कप के दौरान ज़िम्बाब्वे मैच से ठीक पहले सचिन को पता चला कि उनके पिता नहीं रहे, सचिन का दिमाग सुन्न हो गया था. वो वापस भारत आए, लेकिन परिवार के कहने पर वर्ल्ड कप खेलने वापस इंग्लैंड गए.
पिता की मौत सचिन की ज़िन्दगी की सबसे दर्दनाक घटना थी. लेकिन सचिन ने हर मुश्किल समय का सामना किया और सिर्फ़ क्रिकेटर के तौर पर ही नहीं, एक हीरो के रूप में वो मुकाम हासिल किया जो सदियों में किसी एक को ही मिलता है.
पूरी फ़िल्म के दौरान 90 के दशक के मैच, हैंडीकैम से रिकॉर्ड की गईं घरेलू वीडियो और सचिन-अंजलि की शादी की फुटेज देखना क्रिकेट और उस दौर से जुड़ीं बहुत सारी यादें ताज़ा करता है.
बड़े पर्दे पर पुराने क्रिकेटरों को जवान देखना बहुत अच्छा अनुभव है. ड्रेसिंग रूम के अंदर के किस्से और मैदान में हुई बातों के खुलासे उस पार की कहानी सुनाकर हमारे ज़हन में मौजूद तस्वीर को पूरा करते हैं.
एक बात जो खटकती है वो ये कि क्रिकेट से जुड़ी सभी कंट्रोवर्सीज़ में सचिन को बहुत ही मासूम दिखाया है. कहीं-कहीं ये फ़िल्म पुराने मसलों की सफाई देती हुई सी लगती है. सचिन की “लार्जर देन लाइफ़” वाली छवि को इस फ़िल्म में भुनाया भी गया है और बढ़ाया भी गया है.

एक्टिंग:

चूंकि ये एक डॉक्यूमेंट्री है, सचिन के बचपन के किस्से के अलावा सभी किरदार असली हैं. सर डॉन ब्रैडमैन को पर्दे पर देखकर अच्छा लगता है. उनके अलावा हैंसी क्रोनिए की झलक भी आपके भीतर बहुत सारे इमोशन्स भर सकती है. सचिन की तारीफ़ की जानी चाहिए कि कैमरे से हमेशा दूरी बनाने वाले शर्मीले सचिन ने पूरी फ़िल्म में बहुत नेच्युरल और संयमित एक्टिंग की है. कहीं-कहीं कैमरे से उनकी झिझक साफ़ पता चलती है. सचिन के बेटे अर्जुन वाले हिस्से में लगता है की बेटा भी पिता की तरह कैमरे से दूर रहना चाहता है. पत्नी अंजलि बहुत ख़ूबसूरत लेकिन थकी हुई सी लगी हैं.

सिनेमेटोग्राफ़ी

यह फ़िल्म आधी बनी है हैंडीकैम से शूट हुए पुराने घरेलू वीडियोज़ से और आधे में क्रिकेट का हरा मैदान नज़र आता है. कुछ हिस्से गोवा में शूट हुए हैं जहां सचिन अपने दोस्तों के साथ समय बिता रहे हैं. स्लोमोशन का प्रयोग भी बहुत किया गया है लेकिन वो बोझिल नहीं होता. पूरी फ़िल्म एक ड्रीम सीक्वेंस वाली फ़ीलिंग देती है.

म्यूज़िक: 

फ़िल्म के ऑडियो एल्बम में तीन गाने हैं. तीनो को ए आर रहमान ने कम्पोज़ किया है. लेकिन फ़िल्म के दौरान सिर्फ़ एक ही गाना सुनाई देना है. गाना क्या, गूंज ही है, “सचिन, सचिन”. जब पूरी आवाज़ के साथ ये सुनाई देता है, थिएटर में बैठे हर शख्स को सुरसुरी छूट जाती है.

‘सचिन: अ बिलियन ड्रीम्स’ फ़िल्ममेकिंग में एक नए तरह का प्रयोग है. यहां कहानी नहीं भावनाएं हैं. ख़ास बात है कि इस फ़िल्म के लाख चाहने के बावजूद सचिन भगवान नहीं लगते, इंसान लगते हैं. वो भी अच्छाइयों और बुराइयों से भरे इंसान. और ये देखना बहुत सुकूनदायक हो सकता है.

जिस शख्स में कोई ऐब नहीं है अगर वो शिखर पर है तो इसमें क्या ख़ास बात है. असली मज़ा तो तब आता है जब तकलीफों, तनावों और डिप्रेशन से भरा इंसान भी ‘सचिन तेंदुलकर’ बन जाता है.

RELATED ARTICLES
Continue to the category

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments